हज़रत मौलाना सैयद अरशद मदनी दामत बरकातुहू, सदर जमीयत उलमा-ए-हिंद और उस्ताद-ए-हदीस दारुल उलूम देवबंद, अपने वालिदे गरामी शेखुल इस्लाम हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह. की ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों के बारे में बयान करते हैं:
हज़रत मदनी रह. की ज़िंदगी बड़ी جامع ज़िंदगी थी। उनकी ज़िंदगी का वो हिस्सा जो लोगों के सामने था और जो घर की चारदीवारी में था, दोनों में कोई फर्क नहीं था। उनमें यकसानी थी और जनाब रसूलुल्लाह ﷺ की इताअत उनके रग-ओ-रेशे में बसी हुई थी। अगर कोई शख्स हदीस का इल्म नहीं रखता था या रसूलुल्लाह ﷺ की सुन्नत से वाक़िफ़ नहीं था, तो हज़रत के अमल को देखकर यह यकीन करता था कि यही सुन्नत है। क्योंकि हर कोई जानता था कि उनकी ज़िंदगी का कोई अमल आप ﷺ के तरीक़-ए-हिदायत से अलग नहीं था।
फिर ये सिर्फ बाहर की ज़िंदगी तक ही महदूद नहीं थी। घर के अंदर की ज़िंदगी भी हज़रत की बिल्कुल उसी के मुताबिक़ थी। मैं हज़रत के मरज़-ए-वफ़ात के दौरान उनके पास बैठा हुआ था। हज़रत का मामूल आम लोगों या मशाइख़ की तरह ऐसा नहीं था कि वो अपनी औलाद और अहल-ए-ख़ाना से दूर-दूर रहते। बल्कि घर में तशरीफ़ ले जाते तो अपने अहल-ए-ख़ाना के साथ इस तरह मिलते कि जैसे एक बेहतरीन साहिब-ए-ख़ाना अपने घरवालों के साथ रहता है।
हज़रत के साथ उस वक़्त मैं और दूसरे बच्चे भी मौजूद थे। किसी ने बाहर से आकर एक ख़त दिया। हज़रत ने उसे खोला, जो अरबी ज़बान में था। पढ़ने के बाद हज़रत मुस्कुराए और ख़त को तकिये के नीचे रख दिया। मैंने पूछा, “अब्बा जी! ये ख़त किसका था?” उन्होंने फ़रमाया, “तेरे चाचा का था, मदीना मुनव्वरा से।” मैंने पूछा, “क्या लिखा है उन्होंने?” फ़रमाया, “लिखा है कि: हमारा असल वतन मदीना मुनव्वरा है। मियां (हज़रत के वालिद को मियां कहा जाता था) ने मदीना मुनव्वरा को छोड़ा, यहां हिंदुस्तान में मकान बनाया और हम यहीं आबाद हुए। अब आप बीमार हैं, अपने अहल-ए-ख़ाना के साथ मदीना मुनव्वरा आजाइए। मैं ख़ास तौर पर एक प्लेन भेजता हूं जो आप सबको ले आएगा।”
मौलाना अरशद मदनी फ़रमाते हैं:
“मैं 1955 में हज़रत के साथ हज पर गया था। मदीना मुनव्वरा देख चुका था, दिलचस्पी थी। मैंने खुश होकर कहा, ‘अब्बा जी! चलिए।’ हज़रत फिर मुस्कुराए और बात खत्म हो गई। क्योंकि उनकी सेहत बहुत कमजोर हो चुकी थी, दो दिन बाद हज़रत ने धीरे-धीरे अरबी में जवाब लिखा। जब मैंने पूछा कि क्या लिखा, तो फ़रमाया: ‘लिखा है कि हम हिंदुस्तान में रहकर जो इस्लाम की खिदमत कर सकते हैं, वहां रहकर नहीं कर सकते।'”
यह वह लोग थे जिनकी पूरी ज़िंदगी उम्मत-ए-मुहम्मदिया की खिदमत के लिए वक्फ़ थी। अपने आखिरी लम्हात में भी उन्होंने इस बात का ख्याल रखा कि नबी-ए-करीम ﷺ से जो अमानत और इल्म उन्होंने लिया, उसे सही जगह तक पहुंचाया जाए।
Source: Facbook